साँची का स्तूप एक बौद्ध स्मारक है जो भारत के मध्य प्रदेश राज्य के साँची नामक गांव में स्थित है। ये गांव रायसेन जिले में बेतवा नदी के तट पर स्थित है। साँची गांव भोपाल से 46 किलोमीटर तथा विदिशा शहर से 10 किलोमीटर दूर स्थित है। प्राचीन समय में इस गांव को कंकेनवा या ककान्या आदि नामों से जाना जाता था।
सांची के स्तूप के सिवा यहां और भी बहुत कुछ है
साँची के जिस स्तूप का चित्र ऊपर दिया गया है उसके सिवा भी साँची में कई और छोटे-बड़े स्तूप है। इसके सिवा यहां मौर्य, शुंग, कुषाण, सातवाहन और गुप्तकालीन अवशेषों की लगभग 50 से ज्यादा संरचनाएं हैं।
बौद्ध स्मारकों के सिवा एक प्राचीन हिंदू मंदिर के अवशेष भी मिले हैं जिसे गुप्त काल में निर्मित माना गया है।
साँची का स्तूप किसने और कब बनवाया?
साँची के मुख्य स्तूप के निर्माण का श्रेय सम्राट अशोक को दिया जाता है। माना जाता है उनके काल में ही इस स्तूप का निर्माण करवाया गया था।
कहा जाता है कि सम्राट अशोक की एक महारानी साँची के पास स्थित विदिशा नगर के एक व्यापारी की पुत्री थी, जिसे सम्राट अशोक ने इस स्तूप को बनवाने का कार्य सौंपा था।
मुख्य स्तूप को अशोक के बाद शुंग काल में विस्तार दिया गया और इसे लगभग दोगुना कर दिया गया। वर्तमान समय में इस स्तूप की ऊंचाई 16.46 मीटर (54 फुट) और व्यास 36.6 मीटर (120 फुट) है।
शुंग काल में ही साँची में मौजूद ज्यादातर निर्माण बनाए गए थे। बाकी के निर्माण भी तीसरी शताब्दी ई.पू से बारहवीं सदी के बीच के काल के हैं।
सांची का उस दौर में कितना महत्व रहा होगा इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अशोक के पुत्र महेंद्र व पुत्री संघमित्रा श्रीलंका में धर्म प्रचार पर जाने से पूर्व यहां मठ में रहते थे, यहां पर उनकी माता का भी एक कक्ष था।
स्तूप क्यों बनाए जाते थे?
जब भगवान बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ अर्थात उनकी मृत्यु हुई तो बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार इन स्तूपों को प्रतीक मानकर होने लगा।
भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियों पर अधिकार को लेकर उनके अनुयायी राजाओं में झगड़ा हो गया। इसे देखकर एक बौद्ध संत ने सभी को समझा-बुझाकर बुद्ध की अस्थियों के हिस्सों को सभी में बराबर बराबर बांट दिया। इन अस्थियों को लेकर ही सबसे पहले आठ स्तूपों का निर्माण किया गया और फिर बाकी का।
प्रमुख स्तूप बनाने से पहले केंद्रीय भाग में भगवान बुद्ध के अवशेष अर्थात उनकी अस्थियां रखी जाती थी और फिर ऊपर मिट्टी पत्थर डालकर उसको गोलाकार आकार दिया जाता था।
साँची में प्रमुख स्तूप के सिवा जो बाकी के दो स्तूप है उन्हें बनाने से पहले बुद्ध के शुरुआती दो शिष्यों की अस्थियां रखी गई थी।
साँची का स्तूप कैसे बनाया गया?
जैसा कि हमने ऊपर बताया है कि स्तूप बनाने से पहले अस्थियां रखी जाती थी और फिर ऊपर मिट्टी पत्थर डालकर उसको गोलाकार आकार दिया जाता था। इन स्तूपों को बनाते समय ईटों और पत्थरों की चिनाई इस प्रकार से की गई थी कि इन पर मौसम का कोई प्रभाव ना हो सके।
स्तूपों में कोई कमरा या गर्भ गृह नही होता है। ये बस मिट्टी पत्थर के एक ढेर हैं। ‘स्तूप’ शब्द संस्कृत या पाली से निकला हुआ माना जाता है जिसका अर्थ होता है – ढेर।
स्तूप के पास जाने के लिए जो प्रवेश द्वार हैं, उस पर भगवान बुद्ध के जीवन की झांकी और प्रसंगों को उकेरा गया है। ये काम बहुत ही बढ़िया तरीके से किया गया है।
साँची का स्तूप दोबारा 1818 में खोज़ा गया
मौर्य से गुप्त काल तक बौद्ध धर्म फलता फूलता रहा लेकिन इसके बाद बौद्ध धर्म से राजकीय कृपा दृष्टि लगभग खत्म हो गई। बाद के हिंदू राजाओं ने बौद्ध स्मारकों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया।
जब मुसलमानों के भारत पर आक्रमण शुरू हुए और मध्य प्रदेश का क्षेत्र भी उनके कब्जे में आ गया तो बौद्ध धर्म का ये महा केंद्र सांची गुमनामी में खो गया। सांची के चारों और घनी झाड़ियां और पेड़ उग आए।
1818 में कर्नल टेलर आधुनिक युग के पहले ज्ञात इतिहासकार है जिन्होंने सांची के अवशेषों का पता लगाया। जब वो यहां पर आए तो उन्हें ये बड़ी खराब हालत में मिले थे। उन्होंने यहा पर खुदवाई करवाई। कहा तो ये भी जाता है कि कर्नल टेलर ने स्तूप के अंदर धन संपदा के अंदेशे से खुदाई की जिससे इसकी संरचना को काफी नुकसान पहुँचा।
1912 से 1919 तक सांची के अवशेषों की खुदाई और मरम्मत का जिम्मा जॉन मार्शल को सौंपा गया। उन्होंने इस पूरे स्थल को व्यवस्थित किया और वर्तमान स्थिति में लाया।
साँची यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल है
साँची के इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल को 1989 में यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल का दर्जा दे दिया। इस सारे स्थल के प्रबंधन और संरक्षण का जिम्मा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है।
खुदाई के दौरान जो छोटी-मोटी वस्तुएं मिली थी उनको लेकर के 1919 में स्तूपों के पास ही एक संग्रहालय बनाया गया था जिसमें मौर्य से गुप्त कालीन कला के अवशेष, मूर्तियां और शिलालेख आदि देखने को मिलते हैं। जब खुदाई में बहुत ज्यादा वस्तुओं की प्राप्ति हो गई तो इस संग्रहालय को 1986 में सांची की पहाड़ी के आधार पर नए भवन में स्थानांतरित कर दिया गया।
साँची का स्तूप देखने के लिए कैसे जाएं?
ऐतिहासिक और बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केंद्र होने के कारण यहां पर देशी और विदेशी पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है। दूर से या फिर चित्रों में देखने पर ये स्तूप भले ही मामूली अर्ध गोलाकार संरचनाएं लगे लेकिन इसकी भव्यता और बारीकियों का पता सांची आकर देखने पर ही लगता है।
अगर आप भी साँची जाकर इस स्थल को देखना चाहते है तो यहां रेल, सड़क और हवाई जहाज तीनों तरीकों से पहुँचा जा सकता है। नजदीकी रेलवे स्टेशन सांची ही है लेकिन यहां पर केवल पैसेंजर गाड़िया ही रुकती है। मेल गाड़िया भोपाल और विदिशा में रूकती हैं, जहां से सड़क मार्ग के जरिए आप यहां पहुँच सकते है। विदिशा रेलवे स्टेशन सबसे नज़दीक है।
यह पुरातत्व स्थल सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है।
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Note : हमने साँची का स्तूप / Sanchi Ka Stoop के बारे में बेहद रिसर्च करके इस पोस्ट में लिखा है। अगर आपको इन से संबंधित कोई और जानकारी चाहिए, तो आप Comments के माध्यम से पूछ सकते हैं। साँची की खुदाई में प्राप्त सभी वस्तुओं के चित्र देखने के लिए इस लिंक पर जाएं।
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