पानीपत का युद्ध कब हुआ था? Panipat Wars in Hindi

panipat ka yudh kab hua tha

पानीपत का युद्ध : पानीपत हरियाणा का एक शहर है जो अपने तीन ऐतिहासिक युद्धों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। पानीपत के तीनों युद्ध भारतीय इतिहास के दो बड़े साम्राज्यों – मुगल साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य के उत्थान का कारण बने थे जिन्होंने भारत के एक बड़े हिस्से पर दो-दो सौ साल तक राज किया।

पानीपत के तीनों युद्धों में एक सामान्य बात यह रही कि इन तीनों युद्धों में भारतीय पक्षों की हार हुई थी चाहे वो हिंदु थे जा फिर मुस्लिम।

आइए इन तीनों युद्धों के बारे में विस्तार से जानते हैं-

पानीपत की पहली लड़ाई कब हुई थी?

पानीपत का पहला युद्ध 21 अप्रैल 1526 ईस्वी को बाबर की हमलावर फौजों और दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लौधी के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में भले ही इब्राहिम लौधी की फौज़ की गिणती बाबर की मुगलिया फौज़ से चार गुणा थी लेकिन बाबर की कुशल रणनीति और तोपखाने की वजह से लौधी सुल्तान को हार का मुँह देखना पड़ा।

पानीपत का पहला युद्ध एक नज़र में-

तिथि – 21 अप्रैल 1526
स्थान – पानीपत, हरियाणा
परिणाम – मुगलों की जीत
प्रतिद्वंदी – मुगल / लौधी सल्तनत
कमांडर – बाबर / इब्राहिम लौधी
सेना की गिणती – 12,000 (जा 25,000) / 1,00,000
कितने सैनिक मरे – बहुत कम / 15 से 20 हज़ार

समरकंद को तीसरी बार हारने के बाद बाबर भारत पर आक्रमण कर राज्य बसाने पर ध्यान देता है। वो लाहौर को अपने कब्ज़े में कर लेता है जो कि उस समय लौधी सल्तनत का हिस्सा होता है। लौधी सुल्तान बाबर को सबक सिखाने के लिए एक बड़ी फौज़ लेकर दिल्ली से रवाना होता है।

दोनों सेनाओं का सामना हरियाणा के पानीपत के मैदान पर होता है। बाबर की सेना लौधी की सेना के मुकाबले बहुत छोटी थी पर वो अपनी सेना को तुलगुमा युद्ध पद्धति के आधार पर दाएं-बाएं और केंद्रिय भागों में बांट देता है और अच्छी तरह से संगठित कर उनमें जोश भर देता है। इसके सिवाए उसके पास तोपें भी होती है जो कि उस समय किसी अन्य भारतीय राजा जा सुल्तान के पास नहीं थी।

युद्ध जब शुरू होता है तो बाबर की तोपें आग उगलना शुरू कर देती है जिससे इब्राहिम लौधी के हाथी डर जाते है और पीछे मुड़कर अपने ही सैनिकों को कुचलने लगते है। उधर दाएं-बाएं से बाबर के तुलगमा दस्ते इब्राहिम लौधी की सेना पर हल्ला बोल देते हैं।

लौधी सेना को संभलने का मौका ही नहीं मिलता और उनकी भयंकर तबाही होती है। दोपहर के बाद जब युद्ध खत्म हुआ तो इब्राहिम लौधी युद्ध के मैदान में मृत पाया गया। उसके कई हज़ार सैनिक भी मारे गए थे। बाकी के मैदान छोड़कर भाग गए थे। एक हिंदू राजपूत राजा विक्रमजीत ने भी लौधी का साथ दिया था वो भी युद्ध मारा गया।

इस युद्ध के बाद लौधी सल्तनत का अंत हो जाता है और बाबर की ताकत बहुत बढ़ जाती है और वो अगले 4 सालों में उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से को अपने कब्ज़े में कर लेता है।

[Back to Contents ↑]

पानीपत की दूसरी लड़ाई कब हुई थी?

पानीपत का दूसरा युद्ध 5 नवंबर 1556 ईस्वी को सम्राट हेमचंद्र विक्रिमादित्य (हेमू) और मुगल बादशाह अकबर के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में हेमचंद्र के पास मुगलों से तीन गुणा ज्यादा सेना थी लेकिन यु्द्ध में हुई एक घटना की वजह से वो युद्ध हार गया। यह घटना थी हेमचंद्र की आंख में एक तीर का लगना, जिसकी वजह से वो बेहोश हो गया और उसकी सेना ने उसे मरा समझकर मैदान से भागना शुरू कर दिया और मुगल जीत गए। इस जीत के बाद मुगलों का दिल्ली पर कब्ज़ा हो गया और भारत में मुगल साम्राज्य की एक बार फिर से नींव पड़ गई।

पानीपत का दूसरा युद्ध एक नज़र में-

तिथि – 5 नवंबर 1556
स्थान – पानीपत, हरियाणा
परिणाम – मुगलों की जीत
प्रतिद्वंदी – मुगल / हेमू का राज्य
कमांडर – हेमचंद्र / बैरम ख़ान और उसके साथी सेनापति
सेना की गिणती – 10,000 / 30,000
कितने सैनिक मरे – No Record

हेमू शेर शाह सूरी के उत्तराधिकारी आदिलशाह सूरी का हिंदू मंत्री था। आदिल शाह को हराकर हुमायुं ने अपना राज्य वापिस तो पा लिया था लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई थी। उस समय मुगल शासन काबुल, कंधार, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्सों तक ही सीमित था।

जब हेमचंद्र को हुमायुं की मौत के बारे में पता चला तो उसने हिंदुओं और अफ़गानों की संयुक्त सेना के साथ मुगलों को दिल्ली तक उखाड़ फेंका। जब काबुल में मौजूद हुमायुं के उत्तराधिकारी अकबर के संरक्षक बैरम ख़ान को यह सब पता चला तो वो सेना लेकर हुमायुं से युद्ध करने निकल पड़ा।

5 नवंबर 1556 के दिन दोनों पक्षों की सेनाओं का सामना पानीपत के मैदान में होता है। विरोधी से ज्यादा सेना होने के बावजूद भी हेमू युद्ध हार गया जैसा कि हमने ऊपर बताया है कि उसकी आंख में तीर लगने की बाद वो बेहोश हो गया और उसकी सेना अपने सेनानायक को मरा समझकर मैदान छोड़कर भाग गई।

हारे हुए हेमु को जब बैरम ख़ान के पास लाया जाता है तो वो उसका सिर काट देता है। हेमू के रिश्तेदारों और करीबी अफ़गान सैनिकों को पकड़ लिया गया और उन्हें मौत की सज़ा दे दी गई। हेमू के 82 साल के पिता को इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया लेकिन उन्होंने इस पेशकश को ठुकरा दिया और अपने लिए मौत को चुना।

पानीपत की जीत के बाद भारत में मुगल साम्राज्य की जड़े पक गई लेकिन हेमू के कब्ज़े में जो क्षेत्र था उस पर कब्ज़ा करने में अकबर को 8 साल लग गए।

[Back to Contents ↑]

पानीपत की तीसरी लड़ाई कब हुई थी?

पानीपत का तीसरा युद्ध 14 जनवरी 1761 ईस्वी को मराठों और अफ़गानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में दोनों पक्षों के पास भारी सेना थी हालांकि मराठों की गिणती थोड़ी कम थी। युद्ध के शुरू में मराठों का पलड़ा भारी रहा लेकिन अंत में जीत अब्दाली की हुई।

पानीपत का तीसरा युद्ध एक नज़र में-

तिथि – 14 जनवरी 1761
स्थान – पानीपत हरियाणा
परिणाम – अफ़गानों की जीत
प्रतिद्वंदी – दुरानी साम्राज्य – अवध का नवाब – रोहीले / मराठा साम्राज्य
कमांडर – अहमद शाह अब्दाली / सदाशिवराव भाऊ
सेना की गिणती – 1 लाख / 60 से 70 हज़ार
कितने सैनिक मरे – 20 से 30 हज़ार / 30 से 40 हज़ार

18वीं सदी के मध्य में मराठाओं ने पूरे उत्तर भारत पर कब्ज़ा कर पंजाब तक अपनी पताका फहरा दी थी तो अफ़गानिस्तान के शासक के साथ उनका टकराव होना लाज़मी था। यह टकराव पानीपत के मैदान पर हुआ।

क्योंकि मराठाओं का उद्देश्य पूरे भारत में हिंदू साम्राज्य स्थापित करना था इसलिए भारत के मुस्लिम राज्यों के मन में डर पैदा हो गया था और उन्होंने अपनी सेना पानीपत के युद्ध में मराठाओं के विरूद्ध अब्दाली को भेजी। उधर मराठाओं को भी राजपूतो और जाटों की सहायता मिलने की उम्मीद थी लेकिन उन्होंने सहायता नहीं दी। इस वजह से मराठे मुस्लिम सुल्तानों की संयुक्त सेना के सामने कमज़ोर पड़ गए और युद्ध हार गए।

पानीपत की तीसरी लड़ाई को 18वीं सदी की सबसे खूनी लड़ाई माना जाता है। इससे मराठा शक्ति को काफी नुकसान पहुँचा और अंग्रेज़ों के लिए पूरे भारत पर राज करने का द्वार खुल गया। उधर भले ही अब्दाली युद्ध जीत गया था लेकिन उसकी भी सैनिक शक्ति इस युद्ध में काफी नष्ट हो गई और उसने दुबारा कभी दिल्ली पर हमला नही किया।

इस तरह से हम देखते है कि पानीपत के तीनों युद्ध भारत के इतिहास की अहम घटनाएं है जिन्होंने भारत पर दो-दो सौ साल राज करने वाले साम्राज्यों – मुगल साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य के राज करने का कारण बने। अगर इनमें से किसी भी युद्ध का परिणाम उल्ट होता तो भारत का इतिहास आज कुछ और होता।

[Back to Contents ↑]

See Also

Comments