1659 ईस्वी में जब औरंगज़ेब ने अपनी दूसरी ताजपोशी की रस्म पूरी की तो उसने शाइस्ता खाँ को दक्षिण का वायसराय नियुक्त किया। औरंगजेब ने शाइस्ता खाँ को जो काम सौंपे थे उनमें से सबसे बड़ा था शिवाजी पर काबू पाना।
शाइस्ता खाँ ने शिवाजी की विरोधी आदिलशाही सल्तनत जिसे बीजापुरी जा कर्नाटकी सल्तनत भी कहा जाता का सहयोग भी प्राप्त कर लिया और उन्हें दक्षिण की तरफ से शिवाजी के राज्य पर हमले करने के लिए राज़ी भी कर लिया।
शाइस्ता खाँ के इस पैंतरे की वजह से शिवाजी को अपनी सेना को दो भागों में बांटने के लिए मज़बूर होना पड़ा। इस वजह से मराठों को कई किले गंवाने पड़े।
इस लेख में हम आपको शाइस्ता खाँ द्वारा पुणे पर कब्ज़े और चाकन के युद्ध (जून-अगस्त 1660) के बारे में बताएंगे।
चाकन का युद्ध शाइस्ता खाँ और मराठा सरदार फिरंगोजी नरसाला के बीच हुआ था जिसमें मुगलों की जीत हुई थी। इस युद्ध में शिवाजी शामिल नहीं थे, क्योंकि जैसा हम ने ऊपर बताया के दक्षिण की तरफ से भी उन पर आदिलशाही के हमले हो रहे थे तो उस समय (जुलाई 1660) वो चाकन से 278 किलोमीटर दूर दक्षिण में पन्हाला और पावनखिंडी की लड़ाई में व्यस्त थे जिसके बारे में हम पहले ही बता चुके हैं।
शाइस्ता खाँ का पुणे पर कब्ज़ा | Shasta Khan’s Pune occupation
शाइस्ता खाँ 25 फरवरी 1660 को एक भारी सेना लेकर अहमदनगर से पुणे की ओर चल पड़ा। वो पुणे की दाईं (Right) ओर से होता हुआ पुणे पहुँचा और रास्ते में आने वाले किलो पर कब्ज़ा करता गया।
नीचे नक्शे में शाइस्ता खाँ के अहमद नगर से पुणे और फिर चाकन की ओर जाने वाले रास्ते को दिखाया गया है। एक छोटी तस्वीर में इस पूरी जगह को महाराष्ट्र में भी दिखाया गया है और उस में जो लाल तीर का निशान है वो पन्हाला को दिखा रहा है जिसमें उस समय शिवाजी लड़ रहे थे।
(यह नक्शा Google Maps की सहायता से बनाया गया है जो कि वर्तमान रास्तों के अनुसार है।)
1. 25 जनवरी 1660 को शाइस्ता खाँ अहमदनगर से रवाना होता है।
2. खाँ सोनवाड़ी और सुपा होते हुए 5 अप्रैल 1660 को बारामती पहुँचता है। यहां पर मराठे बिना मुगलों का मुकाबला किए उनके पहुँचने से पहले ही चले जाते है।
3. 18 अप्रैल को खाँ शिरवाल पहुँचता है। यहां के किले पर कब्ज़ा रखने के लिए कुछ सैनिकों को छोड़ देता है।
4.खाँ एक छोटे सैनिक दस्ते के साथ राजगढ़ के आस-पास के गांवो में लूटपाट करता है।
5. 1 मई को खाँ की सेना शिवापुर पहुँचती है। यहां तक मुगलों के कूच का विरोध नही हुआ। मराठे सिर्फ उन तक रसद पानी पहुँचने से रोकते रहे और लूट-मार करने वाले मुगल दस्तों से मुठ-भेड़ करते रहे।
6. मुगलों के सैनिक दस्ते ने सासवड़ और पुरंदर में लूटपाट की और पुरंदर के पास जुड़ी 3000 मराठा फौज़ को 1 लाख 20 हज़ार मुगलिया सेना ने खिसक जाने पर मज़बूर कर दिया।
7. 9 मई को मुगलिया फौज़ पुणे में दाखिल हो जाती है।
शाइस्ता खाँ की योज़ना बरसात का मौसम पुणे में ही बिताने की थी लेकिन मराठे उससे ज्यादा चालाक थे और उसके पुणे पहुँचने से पहले ही सारा दाना पानी पुणे से खत्म कर चुके थे और अपनी प्रजा को भी वहां से जाने के लिए कह दिया था।
पुणे और मुगलिया इलाके के बीच कई नदियों में बाढ़ आई हुई थी जिसकी वजह से मुगलों तक रसद-पानी नहीं पहुँच पाया और वो परेशान हो गए।
शाइस्ता खाँ ने अपनी सेना को चाकन लिजाने का फैसला किया जो कि अहमदनगर और मुगल साम्राज्य के नज़दीक थी और वहां पर आसानी से दाना पानी पहुँच सकता था।
चाकन का युद्ध | Battle of Chakan in Hindi
अहमद नगर से पुणे आते हुए तो शाइस्ता खाँ को किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा लेकिन चाकन के किले जिसका नाम ‘संगराम दुर्ग’ था को पाने के लिए उसे दो महीने लग गए।
शिवाजी चाकन के किले की कमान 70 साल के मराठा सरदार फिरंगोजी नरसाला को सौंप गए थे जिनके पास 1 लाख मुगल फौज़ से लड़ने के लिए केवल 320 सैनिक थे। शिवाजी का फिरंगोजी को निर्देश था कि वो जब तक हो सके किले पर अधिकार जमाएं रखे और बिलकुल हारने की स्थिती में ही आत्मसमर्पण करें। क्योंकि उस समय दक्षिण में पन्हाला के पास आदिलशाही फौज़ के विरूद्ध लड़ रहे शिवाजी को फिरंगोजी की सहायता के लिए कोई फौज़ भेजनी असंभव थी।
19 जून 1660 को शाइस्ता खाँ ने चाकन के किले के ईर्द-गिर्द अपनी 1 लाख फौज़ के साथ डेरा डाल दिया और किले पर हमले शुरू कर दिए। अंदर से 320 मराठों ने भी उन पर गोलाबारी जारी रखी। बारिश ने मुगलिया फौज को बहुत परेशान किया लेकिन उन्होंने घेरा नहीं हटाया।
किले के दरवाज़ों को लांघ पाना असंभव था इसलिए मुगलों ने किले के उत्तर-पूर्वी कोने के नीचे बारुदी सुरंग बिछा दी जिसे बिछाने में 54 दिन लग गए थे। यह सुरंग 14 अगस्त 1660 को दोपहर 3 बजे फटी। बड़े धमाके की वजह से कई मराठे मारे गए थे।
मराठों को पहले से ही पता था कि मुगल सुरंग बिछा रहे है इसलिए उन्होंने शुरू से ही किले के कोने से थोड़ा पीछे मिट्टी का का एक बांध बना लिया। सुरंग फटने के बाद जब मुगलों ने उस बांध को देखा तो उनके होश उड़ गए। कई मराठों के शहीद होने के बावजूद भी बाकी बचे मराठो ने मुगलों पर बंबों से हमला कर दिया।
मिट्टी के बांध को मुगलों ने एक ही दिन में हटा दिया और किले के अंदर घुस गए। कई मराठे मुगलों की तलवारों का शिकार हुए और फिरंगोजी नरसाला ने आत्मसमर्पण कर दिया।
शाइस्ता खाँ फिरंगोजी की बहादुरी देखकर बहुत खुश हुआ और उसने फिरंगोजी को मुगल सरदारी की पेशकश कर दी जिसे फिरंगोजी ने ठुकरा दिया।
फिरंगोजी को अपने बाकी बचे हुए साथियों के साथ किला छोड़ने की इज़ाजत मिल जाती है और वो शिवाजी के पास चले जाते है।
फिरंगोजी शिवाजी से आत्मसमर्पण के लिए माफ़ी मांगते है लेकिन शिवाजी उनकी बहादुरी पर खुश होते हुए कहते हैं-
“अगर शाइस्ता खाँ को एक छोटा सा किला जीतने के लिए 60 दिन लग गए, तो सोचो उसे पूरे स्वराज को हराने के लिए कितना समय लगेगा? शाइस्ता खाँ यहां पर कुछ समय के लिए ही है और वो अपने साथ संगराम किले को नहीं ले जाएगा। जो आपने किया वो प्रशंसा के लायक है।”
शिवाजी फिरंगोजी नरसाला को सन्मानित करते हुए उन्हें भोपालगढ़ किले का किलेदार बना देते हैं।
पिछला लेख – पावन खिंड की लड़ाई
अगला लेख – 1661-63 में शिवाजी की लड़ाईयां और मुगलों से संघर्ष
References :
- Wikipedia (Related Articles)
- Shivaji: The Grand Rebel by Dennis Kincaid
- Challenging Destiny : A Biography of Chhatrapati Shivaji by Medha Deshmukh Bhaskaran
- Shivaji and His Times by Jadunath Sarkar
- CHHATRAPATI SHIVAJI by KrishanNath Joshi
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