पावन खिंड की लड़ाई 13 जुलाई 1660 ईसवी को मराठा सेनाओं और आदिलशाही फौजों के बीच हुई लड़ाई को कहा जाता है। यह युद्ध महाराष्ट्र के शहर विशालगढ़ से कुछ दूरी पर एक तंग रास्ते पर लड़ा गया था। इसमें मराठा सेना की कमान बाजीप्रभु देशपांडे के हाथ में और आदिलशाही फौज़ की कमान सिद्दी जौहर (सिद्दी मसूद) के हाथ में थी।
इस युद्ध में बाजीप्रभु देशपांडे का मुख्य लक्ष्य था शिवाजी के सुरक्षित विशालगढ़ किले पहुँचने तक आदिलशाही सेना को रोके रखना और आदिलशाही सेना का लक्ष्य था किसी तरह से शिवाजी को पकड़ना।
पावन खिंड की लड़ाई एक नज़र में-
तिथि – 13 जुलाई 1660, दिन मंगलवार
स्थान – विशालगढ़ शहर के नज़दीक पावन खिंड,महाराष्ट्र
परिणाम – मराठे अपने लक्ष्य में सफल रहे
प्रतिद्वंदी – मराठा साम्राज्य / आदिलशाही (इसे बीजापुरी या कर्नाटकी भी कहा जाता है।)
कमांडर – बाजीप्रभु देशपांडे / सिद्दी जौहर
सेना की गिणती – 300 / 10,000
कितने सैनिक मरे – 200+ / 1400+
युद्ध की पृष्ठभूमि
पावन खिंड के युद्ध से 7 महीने पहले 28 दिसंबर 1659 को हुए कोल्हापुर के युद्ध में जब शिवाजी ने आदिलशाही सेनाओं को हरा कर उनके कई इलाकों पर अधिकार जमा लिया था, तो इससे बीजापुर का सुल्तान गुस्से में आ गया। उसने सिद्दी जौहर के नेतृत्व में 10 हज़ार की विशाल सेना शिवाजी को काबू में करने के लिए भेजी। सिद्दी जौहर के साथ अफ़जल ख़ान का बेटा फज़ल ख़ान भी था। अफज़न ख़ान को शिवाजी ने मारा था इसलिए फज़ल ख़ान शिवाजी को अपना कट्टर दुश्मन मानता था।
सिद्दी जौहर शिवाजी को पन्हाला के किले में घेरने में कामयाब हो जाता है (2 मार्च 1660)। उसने 15 हज़ार सैनिकों के साथ किले को घेर रखा था, लेकिन किला इतना बड़ा था कि 15 हज़ार सैनिक भी उसे कब्ज़े में नहीं ले सकते थे।
लगभग 4 महीने यानि जुलाई 1660 तक आदिलशाही सेना पन्हाला के किले को घेरे हुए थी। इस समय में शिवाजी ने किले के अंदर से दुश्मन की सेना पर गोले दागने जारी रखे। भारी नुकसान की वजह से आदिलशाही सेना अपना डेरा किले से परे किसी स्थान पर लिजाने की सोचने लगी।
बीजापुरी फौज़ शिवाजी के किले के अंदर से किए जा रहे हमलों से डर गई थी इसलिए उन्होंने सोचा कि पन्हाला के किले से पहले पास ही के पवनगढ़ किले पर कब्ज़ा किया जाए। पवनगढ़ का किला पन्हाला के किले से सिर्फ 3-4 किलोमीटर दूर था। आदिलशाही सेना ने पन्हाला किले के घेरे में अपने सैनिक कम कर दिए। फिर उन्होंने पवनगढ़ के किले के पास एक पहाड़ी पर कब्ज़ा करके पवनगढ़ किले पर गोलाबारी शुरू कर दी।
शिवाजी को पता था कि अगर पवनगढ़ किला दुश्मनों के कब्ज़े में आ गया तो पन्हाला के किले को आसानी से कब्ज़े में लिया जा सकता था। इसलिए शिवाजी 13 जुलाई (1660) की अंधेरी रात को पन्हाला किले से किसी तरह बाहर निकल गए और किले में केवल उतने सैनिक छोड़ गए जो किले पर कब्ज़ा जमाएं रख सकें।
(ऊपर चित्र में 3 तस्वीरे हैं, जिनमें से पहली में वो सारा क्षेत्र है जहां पर पावखिंडी के युद्ध की सारी घटनाएं हुई थी, दूसरी में आज के महाराष्ट्र में इस पूरी जगह को दिखाया गया है और तीसरी में पन्हाला और पवनगढ़ किले वाले क्षेत्र को बड़ा करके दिखाया गया है। )
शिवाजी की योज़ना विशालगढ़ जाने की थी और विशालगढ़ जाने का रास्ता पवनगढ़ से होकर जाता था (चित्र देखें) जहां पर आदिलशाही सेना डेरे लगाए बैठी थी ताकि पवनगढ़ को कब्ज़े में लिया जा सके। शिवाजी अपने सैनिको समेत आदिलशाही डेरे पर टूट पड़े जिन्हें इस हमले की जरा सी भनक भी नहीं थी। इस हमले से पैदा हुई हफड़ा-दफड़ी में शिवाजी अपने साथ 700 सैनिकों को लेकर विशालगढ़ की ओर निकल गए जिसका पता दुश्मनों को बाद में लगा। विशालगढ़ वहां से 50-60 किलोमीटर दूर था।
फज़न ख़ान के नेतृत्व में 10 हज़ारी आदिलशाही फौज़ शिवाजी का पीछा करने के लिए निकल पड़ी। वो रात पूनम की रात थी इसलिए चाँद की तेज़ रौशनी में ना शिवाजी को रात के अंधेरे की दिक्त्त हुई और ना पीछा कर रही दुश्मन सेना को।
जब सूरज चढ़ आया तो शिवाजी को पता चला कि विशालगढ़ सिर्फ 10-15 किलोमीटर दूर रह गया है और वो इस बात से भी अवगत थे कि आदिलशाही सेना उनका पीछा करते हुए पास आ पहुँची है।
शिवाजी के मुकाबले दुश्मन की सेना बहुत ज्यादा बड़ी थी और वो सभी थक भी चुके थे। शिवाजी के लिए खुशी की बात तो यह थी कि आगे तंग रास्ता था जहां पर छोटी सी सेना बड़ी सेना का मुकाबला कर सकती थी। शिवाजी के एक सरदार बाजीप्रभु देशपांडे उनके विशालगढ़ किले पहुँचने तक उस रास्ते में बीजापुरी सेना को रोकने के लिए अड़ गए। उन्होंने शिवाजी से कहा कि वो अपने किले पर सही सलामत पहुँचने पर 3 गोले दागकर उन्हें संकेत दे दें।
तो शुरू हुआ पावन खिंड का युद्ध
बाजीप्रभु देशपांडे के पास लगभग 300 घोड़-सवार सैनिक थे 10 हज़ार आदिलशाही फौज़ को रोकने के लिए। आदिलशाही सेना ने 3 बार ताबड़तोड़ हमले किए जो मराठों द्वारा बेकार कर दिए गए। लगभग 5 घंटे तक घमासान युद्ध चलता रहा जिसमें हज़ारों की आदिलशाही फौज़ 300 मराठों को नहीं फांद पाई। तभी विशालगढ़ किले से तीन गोले के फायर सुनाई दिए जो कि शिवाजी के किले में सही सलामत पहुँचने के संकेत थे। उस समय बाजीप्रभु कई घावों के कारण जमीन पर पड़े हुए थे और उनके सैनिकों ने अपना काम जारी रखा हुआ था। शिवाजी के सही सलामत पहुँचने की खबर ने उन्हें अपने अंतिम समय में खुश कर दिया था। वीर बाजीप्रभु देशपांडे शिवाजी के लिए और हिंदु स्वाराज के सपने के लिए वीरगति को प्राप्त हो गए।
जीवित बचे मराठा सैनिक अपने सरदार के पार्थिव शरीर को लेकर किले की ओर निकल पड़े। आदिलशाही सेना ने विशालगढ़ के भयानक किले को घेरा डालने का इरादा छोड़ दिया और पन्हाला जा कर उसे अगले महीनों में अपने कब्ज़े में ले लिया।
जब शिवाजी और उनकी माता जीजाबाई को बाजीप्रभु की मृत्यु के बारे में पता चला तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। जहां ये युद्ध हुआ था उस जगह को शिवाजी ने बाजाप्रभु देशपांडे के सम्मान में ‘पावन खिंड’ अर्थात् ‘पवित्र रास्ता’ नाम दे दिया। तभी इस युद्ध को पावन खिंड के युद्ध के नाम से जाना जाता है।
युद्ध उपरांत
युद्ध खत्म होने के बाद शिवाजी की समस्याएं खत्म नहीं हुई, बल्कि बढ़ गई। औरंगज़ेब के मामा साइस्तां ख़ान शिवाजी के राज पर भारी मुगल सेना के साथ टूट पड़ा था जिसके बारे में अलगे लेखों में बताया जाएगा।
दोस्तो, हमारे अगले लेख मराठा इतिहास पर ही होंगे। हमारी जानकारी का प्रमुख स्त्रोत विकीपीड़िया और शिवाजी पर कुछ किताबें हैं। अगर आपको लगता है कि मराठा इतिहास पर हमारे किसी भी लेख पर आपके कोई विचार हों, तो उसके बारे में जरूर बताएं।
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